Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

बहुत खींच-तान के बाद जब मैंने दोनों को पृथक किया तब इन्द्र की अवस्था देखकर डर के मारे एकदम रो दिया। पहले मैं अन्धकार में देख न सका था कि उसके सब कपड़े खून से तर-ब-तर हो रहे हैं। इन्द्र हाँफते-हाँफते बोला, “साले गँजेड़ी ने मुझे साँप मारने का बर्छा मारा है- यह देख?” कुरते की आस्तीन उठाकर उसने बताया, भुजा में करीब दो-तीन इंच गहरा घाव हो गया है, और उसमें से लगातार खून बह रहा है।


इन्द्र बोला, “रो मत, इस कपड़े से मेरे घाव को खूब खींचकर बाँध दे। अरे खबरदार! ठीक ऐसा ही बैठा रह, उठा तो गले पर पैर रखकर तेरी जीभ खींचकर बाहर निकाल लूँगा, हरामजादे सूअर! ले इन्द्र, तू खींचकर बाँध, देरी न कर।” इतना कहकर उसने चर्र-चर्र अपनी धोती के छोर का एक अंश फाड़ डाला। मैं काँपते हाथों से घाव को बाँधने लगा और शाहजी निकट ही, आसन्न मृत्यु विषैले सर्प की तरह, बैठा हुआ, चुपचाप देखने लगा।

इन्द्र बोला, “नहीं, तेरा विश्वास नहीं है, तू खून कर डालेगा। मैं तेरे हाथ बाँधूँगा।” यह कहकर उसने उसी की गेरुए रंग की पगड़ी से खींच-खींचकर उसके दोनों हाथ खूब कसकर बाँध दिए। उसने कोई बाधा नहीं दी, प्रतिवाद नहीं किया, जरा-सी चूँ-चपड़ भी न की।

जिस लाठी के प्रहार से जीजी बेहोश हो गयी थीं उसे उठाकर एक तरफ रखते हुए इन्द्र बोला, “कैसा नमकहराम शैतान है यह साला! मैंने इसे अपने पिता के न जाने कितने रुपये चुराकर दिए हैं, और यदि जीजी ने सिर की कसम रखाकर रोका न होता तो और भी देता। इतने पर भी यह मुझे बर्छी मार बैठा! श्रीकान्त, इस पर नजर रख जिससे यह उठ न बैठे- मैं जीजी की ऑंखों और चेहरे पर जल के छींटे देता हूँ।”

पानी के छींटे देकर हवा करते हुए वह बोला, “जिस दिन जीजी ने कहा कि इन्द्रनाथ तेरे कमाए हुए पैसे होते तो मैं ले लेती- किन्तु इन्हें लेकर मैं अपना इहलोक-परलोक मिट्टी न करूँगी।' उस दिन से अब तक इस शैतान के बच्चे ने उन्हें कितनी मार मारी है, इसका कोई हिसाब नहीं। इतने पर भी जीजी लकड़ी ढोकर कंडे बेचकर किसी तरह इसे खिलाती-पिलाती हैं, गाँजे के लिए पैसे देती हैं- फिर भी यह उनका अपना न हुआ। किन्तु अब मैं इसे पुलिस के हाथ में दूँगा, तब छोड़ूँगा- नहीं तो यह जीजी का खून कर डालेगा, यह खून कर सकता है।”

मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मानो वह मनुष्य इस बात से सिहर उठा और सिर उठाकर उसे तुरंत नीचा कर लिया। यह सब निमेष-भर में ही हो गया। किन्तु अपराधी की निबिड़ आशंका मैंने उसके चेहरे पर इस प्रकार परिस्फुट होती हुई देखी कि उसका उस समय का वह चेहरा मुझे आज भी साफ-साफ याद आ जाता है।

मैं अच्छी तरह जानता हूँ, कि इस कहानी को, जिसे कि आज मैं लिख रहा हूँ, इतना ही नहीं कि सत्य मानकर ग्रहण करने में लोग दुविधा करेंगे परन्तु इसे विचित्र कल्पना कहकर उपहास करने में भी शायद संकोच न करेंगे। फिर भी, यह सब कुछ जानते हुए भी, मैंने इसे लिखा है और यही मेरी अभिज्ञता का सच्चा मूल्य है। क्योंकि सत्य के ऊपर खड़े हुए बगैर, किसी भी तरह यह सब कथा मुँह से बाहर नहीं निकाली जा सकती। पग-पग पर डर लगता है कि लोग इसे हँसी में न उड़ा दें। जगत में वास्तविक घटनाएँ कल्पना को भी बहुत दूर पीछे छोड़ जाती हैं-यह कैफियत, स्वयं उसे लेखबद्ध करने में, किसी तरह की मदद नहीं करती, बल्कि हाथ की कलम को बार-बार खींचकर रोकती है।

पर जाने दो इस बात को। जीजी जब ऑंखें खोलकर उठ बैठीं तब शायद आधी रात हो गयी थी। उनकी विह्वलता दूर होते और भी एक घण्टा बीत गया। इसके बाद हमारे मुँह से सारा वृत्तान्त सुनकर वे उठकर धीरे-धीरे खड़ी हो गयीं और शाहजी को बन्धन-मुक्त करके बोलीं, “जाओ; अब सो रहो।”

उसके चले जाने के उपरान्त उन्होंने इन्द्र को पास बुलाकर और उसका दाहिना हाथ अपने सिर पर रखकर कहा, “इन्द्र, मेरे इस सिर पर हाथ रखकर शपथ तो कर भाई, कि अब फिर कभी तू इस घर में न आयेगा। हमारा जो होना हो सो हो, तू अब कोई खबर न लेना।”

इन्द्र पहले तो अवाक् हो रहा; परन्तु दूसरे ही क्षण आग की तरह जल उठा और बोला, “ठीक ही तो है! मेरा खून किये डालता था, सो तो कुछ भी नहीं। और मैंने जो उसे थोड़ी देर के लिए बाँध दिया, सो इस पर तुम्हारा इतना गुस्सा! ऐसा न हो तो फिर यह कलियुग ही क्यों कहलावे! परन्तु तुम दोनों कितने नमकहराम हो! आ रे श्रीकान्त, चलें, बस हो चुका।”

जीजी चुप हो रहीं- उन्होंने इस अभियोग का जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। क्यों नहीं किया सो, पीछे मैंने चाहे जितना क्यों न समझा हो, परन्तु उस समय मैं बिल्कुथल न समझ सका। तथापि मैं अलक्ष्य रूप से चुपचाप वे पाँच रुपये वहीं खम्भे के पास रखकर इन्द्र के पीछे-पीछे चल दिया। ऑंगन के बाहर आकर इन्द्र चिल्लाकर बोला, “हिन्दू की लड़की होकर जो एक मुसलमान के साथ भाग आती है, उसका धर्म-कर्म ही क्या! चूल्हे में चली जाय, अब मैं न कोई खोज ही करूँगा और न खबर ही लूँगा। हरामजादा, नीच कहीं का!” यह कहकर वह तेजी से उस वन-पथ को लाँघकर चल दिया।

हम दोनों नाव में आकर बैठ गये, इन्द्र चुपचाप नाव खेने लगा और बीच-बीच में हाथ उठा-उठाकर ऑंखें पोंछने लगा। यह साफ-साफ समझकर कि वह रो रहा है, मैंने और कोई भी प्रश्न नहीं किया।

श्मशान के उसी रास्ते से मैं लौट आया और उसी रास्ते अब भी चला जा रहा हूँ, परन्तु न मालूम क्यों, आज मेरे मन में भय की कोई बात ही नहीं आती। मालूम होता है, शायद, उस समय मन इतना विह्वल और इतना ढँका हुआ था कि इतनी रात को किस तरह घर में घुसूँगा और घुसने पर क्या दशा होगी, इसकी चिन्ता भी उसमें स्थान न पा सकी।

प्राय: पिछली रात को नाव घाट पर आ लगी। मुझे उतारकर इन्द्र बोला, “घर चला जा श्रीकान्त, तू बड़ा अपशकुनिया है। तुझे साथ लेने से एक न एक फसाद उठ खड़ा होता है। आज से अब तुझे किसी भी कार्य के लिए न बुलाऊँगा- और तू भी अब मेरे सामने न आना। जा, चला जा।” इतना कहकर वह गहरे पानी में नौका ठेलकर देखते ही देखते घुमाव की तरफ अदृश्य हो गया। विस्मित, व्यथित और स्तब्ध होकर मैं निर्जन नदी के तीर पर अकेला खड़ा रह गया।
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